19-10-75   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन 

वृक्षपति द्वारा कल्प-वृक्ष की दुर्दशा का आँखों देखा हाल

मनुष्य-सृष्टि रूपी वृक्ष के बीज रूप और नये कल्प-वृक्ष के रचयिता परमपिता शिव वृक्ष की सैर का समाचार सुनाते हुए बाबा बोले :-

आज वृक्षपति और आदि देव दोनों ही अपने वृक्ष की देख-रेख करने गये। आदि देव अर्थात् साकार मनुष्य सृष्टि का रचयिता बाप (प्रजापिता ब्रह्मा) ने जब वृक्ष को चारों ओर से देखा तो क्या देखा? हर-एक मनुष्य आत्मा रूपी पत्ता पुराना तो हो ही गया है लेकिन मैजॉरिटी पत्तों को बीमारी भी लगी हुई है जिससे उस पत्ते का रंग- रूप बदला हुआ है अर्थात् रौनक बदली हुई है। एक तरफ राज्य-सत्ता को देखा, दूसरी तरफ धर्म सत्ता, तीसरी तरफ भक्ति की सत्ता, चौथी तरफ प्रजा की सत्ता - यह चारों ही सत्तायें बिल्कुल अन्दर से शक्तिहीन, खोखली दिखाई दीं। अन्दर खाली, बाहर से सिर्फ रूप रहा हुआ था। जैसे दीमक लगती है तो अन्दर से खाया हुआ होता है सिर्फ बाहर का रूप ही दिखाई पड़ता है, ऐसे ही राज्य सत्ता में राज्य की सत्ता नहीं थी। नाम राज्य लेकिन अन्दर दिन-रात एक-दूसरे में खींचातान अर्थात् ईर्ष्या की अग्नि जल रही थी। राज्य से सुखों की प्राप्ति तो क्या लेकिन एक मिनट भी चैन नहीं। नींद का भी चैन नहीं। जो मानव जीवन में सारे दिन की थकावट का, संकल्पों को समाने का साधन निद्रा का नियम बना हुआ है, वह अल्पकाल का भी चैन भाग्य में नहीं। अर्थात् भाग्यहीन राज्य। न राज्य सत्ता, न राज्य द्वारा अल्पकाल की प्राप्ति की सत्ता, ऐसा सत्ताहीन राज्य देखा। सदा भय के भूतों के बीच कुर्सी पर बैठा हुआ देखा। यह देखते हुए फिर और तरफ क्या देखा?’’ 

धर्म सत्ता - धर्म सत्ता में कुछ थोड़े बहुत छोटे-छोटे नये पत्ते दिखाई दे रहे थे, लेकिन उन पत्तों को बहुत जल्दी अहंकार अर्थात् स्व-अभिमान और सिद्धि स्वीकार की चिड़िया खा रही थी। दूसरी तरफ क्या देखा-नाम धर्म लेकिन है अति कुकर्म। कुकर्म अर्थात् विकर्म का कीड़ा उन्हों की धर्म सत्ता अर्थात् शक्ति को खत्म कर रहा है। अनेक प्रकार के उलटे नशों में चूर, धर्म के होश से बेहोश थे। तो धर्मसत्ता भी बाहर के आडम्बर रूप में देखी। त्याग, तपस्या और वैराग्य के बदले लोगों को रिद्धियों-सिद्धियों में खेलते हुए देखा। वैराग्य के बजाय राग-द्वेष में देखा। मैजॉरिटी जैसे राज्य सत्ता लॉटरी की जुआ खेल रही है वैसे ही वे धर्म सत्ता होते हुए भी भूले भक्तों से अल्पकाल की सिद्धियों का जुआ खेल रहे थे। बड़े-बड़े दाव लगा रहे हैं - यह प्राप्त करा दूंगा तो इतना देना होगा, बीमारी को मिटायेंगे तो इतना दान पुण्य करना होगा। ऐसे सिद्धियों के जुआ के दाव लगा रहे हैं। फिर क्या देखा? 

भक्ति की सत्ता - उसमें क्या देखा? अन्ध-श्रद्धा की पट्टियाँ ऑखों पर बंधी हुई हैं - और ढूँढ रहे हैं मन्जिल को। यह खेल देखा है ना, जो ऑखों पर पट्टी बांधे हुए होते हैं तो फिर रास्ता कैसे ढूँढते हैं? जहाँ से आवाज आयेगा वहाँ चल पड़ेंगे। अन्दर घबराहट होगी क्योंकि ऑखों पर पट्टी है। तो भक्त भी अन्दर से दु:ख-अशान्ति से घबड़ा रहे हैं। जहाँ से कोई आवाज सुनते हैं कि फलानी आत्मा बहुत जल्दी प्राप्ति कराती है तो उस आवाज के पीछे अन्ध-श्रद्धा में भाग रहे हैं। कोई ठिकाना नहीं। दूसरी तरफ गुड़ियों के खेल में इतने मस्त कि यदि कोई घर (परमधाम) का सही रास्ता बतायें तो कोई सुनने के लिये तैयार नहीं। भक्ति की सत्ता है अति स्नेह की लेकिन स्नेह की सत्ता स्वार्थ में बदल गई है। स्वार्थ का बोल बाला होता है। सब स्वार्थ में भिखारी दिखाई दिया - शान्ति दो, सुख दो, सम्बन्धी की आयु बड़ी दो, सम्पत्ति में वृद्धि हो, यह दो, यह दो, वह दो - ऐसे भीख मांगने वाले भिखारी थे। तो भक्तों को भिखारी रूप में देखा और आगे चलो। 

प्रजा की सत्ता - प्रजा में क्या देखा? सभी चिन्ता की चिता पर बैठे हुए हैं। खा भी रहे हैं, चल भी रहे हैं और कोई कर्म भी कर रहे हैं लेकिन सदैव यह भय का संकल्प है कि अभी तीली अर्थात्. आग लगी कि लगी। संकल्पों में स्वप्न मुआफिक यह दिखाई देता रहता है कि अभी पकड़ गये कि पकड़े गये - कभी राज्य सत्ता द्वारा, कभी प्रकृति की आपदाओं द्वारा, कभी डाकुओं द्वारा - ऐसे ही संकल्पों में स्वप्न देखते रहते। ऐसी चिन्ताओं की चिता पर सवार, परेशान, दु:खी और अशान्त थे जो कोई रास्ता नजर न आये जिससे अपने को बचा सकें। वहाँ जायें तो आग है, वहाँ जायें तो पानी है। ऐसे चारों ओर की टेन्शन (तनाव) के बीच घबराये हुए नज़र आये यह थी आज की सैर। 

जब यह सैर कर लौटे तो नये वृक्ष की कलम को देखा। कलम में कौन थे? आप सभी अपने को कलम समझते हो? जब पुराने वृक्ष को बीमारी लग गई, जड़जड़ीभूत हो गया तो अब नया वृक्ष-आयेपण आप आधार मूर्तियों द्वारा ही होगा। ब्राह्मण हैं ही नये वृक्ष की जड़ें अर्थात् फाउण्डेशन, आप हो फाउण्डेशन। तो देखा कि फाउण्डेशन कितना पॉवरफुल निमित्त बना हुआ है। ब्रह्मा बाप को चारों ओर की दुर्दशा देखते हुए संकल्प आया कि अभी-अभी बच्चों के तपस्वी रूप द्वारा योग अग्नि द्वारा इस पुराने वृक्ष को भस्म कर लें। इतने में तपस्वी-रूप ब्राह्मण व रूहानी सेना इमर्ज की। सब तपस्वी रूप में अपने-अपने यथा शक्ति फोर्स (शक्ति) लगा रहे थे। योग-अग्नि प्रज्जवलित हुई दिखाई दे रही थी। संगठन रूप में योग अग्नि का प्रभाव अच्छा जरूर था, लेकिन विश्व् के विनाश अर्थ विशाल रूप नहीं था। फोर्स था लेकिन फुलफोर्स नहीं था। अर्थात् सर्व ब्राह्मणों के नम्बर अनुसार यथा-शक्ति फुल स्टेज जो हर ब्राह्मण को अपने-अपने नम्बर प्रमाण सम्पूर्ण अर्थात् फुल स्टेज प्राप्त करनी थी, उसमें फुल नहीं थे अर्थात् सम्पन्न नहीं थे इस लिये फुलफोर्स नहीं था, जो एक धक से विनाश हो जाए व पुराना वृक्ष भस्म हो जाय। अब क्या करेंगे? ब्रह्मा बाप के संकल्प को साकार में लाओ। बाप स्नेही बन इस विशाल कार्य में सहयोगी बनो। लेकिन कब नहीं, अभी से ही स्वयं को सम्पन्न बनाओ। समझा? अच्छा। 

ऐसे संकल्प को साकार करने वाले, स्नेह का रिटर्न सहयोग में देने वाले, सदा रहम दिल, विश्व कल्याणकारी स्थिति में स्थित होने वाले, अचल और अड़ोल रहने वाले और ऐसे सदा शुभ चिन्तन में रहने वाले शुभ-चिन्तक बच्चों को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते। 

इस मुरली का सार

1. इस कल्प-वृक्ष का हर-एक मनुष्यात्मा रूपी पत्ता पुराना तो हो ही गया है, साथ ही उसमें बीमारियाँ भी लगी हुई हैं जिससे उसका रंग रूप बदला हुआ है अर्थात् रौनक नहीं है। चारों प्रकार की सत्ताएं -राज्य सत्ता, धर्म सत्ता, भक्ति सत्ता एवं प्रजा सत्ताबिल्कुल अन्दर से शक्तिहीन, खोखली दिखाई दीं, बाहर से सिर्फ उनका रूप (ढाँचा) ही रहा हुआ है।